देवदत्त द्वारा नियुक्त राज सैनिक जब भगवान को न मार सके तब श्रमण देवदत्त ने स्वयं भगवान की हत्या करने की ठान ली। सोचा किसी दूसरे के भरोसे रहना ठीक नहीं, क्यों न मैं स्वयं बुद्ध को मारूं?
ऐसा सोचकर वह उपयुक्त अवसर की तलाश करने लगा। एक दिन उसने देखा कि भगवान गृद्धकूट पर्वत की छाया में टहल रहे हैं। उन्हें मनचाहा अवसर प्राप्त हो गया। वह पर्वत के ऊपर चढ़ गया। देवदत्त
महाबलशाली था। उसके शरीर में पांच हाथियों का बल था। उन्होंने एक विशाल शिलाखंड भगवान की ओर लुढ़काया। उसके रास्ते में एक दूसरी शिला पड़ जाने के कारण पहली शिला रुक गयी। पर उसमें से
एक टुकड़ा टूट कर नीचे गया, जो शास्ता के पैर में लगा। उसकी चोट से भगवान के पैर से खून बहने लगा। भगवान ने ऊपर पर्वत पर देखा। वहां देवदत्त को पाकर यह कहा- "अरे मूर्ख! तूने पाप ही तो
कमाया, जो द्वेषयुक्त चित्त से तथागत पर प्रहार करके रक्त बहाया।"
शिला पपड़ी की चोट से भगवान को असह्य पीड़ा होने लगी। मंच पर बैठाकर भिक्षु उन्हें जीवक के आम्रवन में ले गये । जीवक ने घाव पर औषधि लगा कर पट्टी बांध दी और कहा- मैं नगर में एक रोगी देखने जा रहा हूं। मेरे आने तक यह पट्टी बंधी रहे। नगर से लौटते समय जीवक को देर हो गयी। नगर द्वार बंद हो गया, इसलिए वह निर्धारित समय पर शास्ता के पास नहीं आ सका। उसे भगवान के व्रण और पीड़ा की चिंता हुयी। जीवक के मन की बात को जानकर भगवान ने आनंद को बुला कर पट्टी खुलवा ली।
भोर होते ही राजवैद्य भगवान के पास आये और पूछा- भंते! पट्टी बंधी रहने से भगवान को रात भर जलन और पीड़ा हुई होगी। भगवान बोले- जीवक! तथागत की जलन और पीड़ा बोधिमण्ड पर ही समाप्त हो गयी।
ऐसा कहकर उन्होंने यह गाथा कही-
“गतद्धिनो विसोकस्स, विप्पमुत्तस्स सब्बधि ।
सब्बगन्थप्पहीनस्स, परिडाहो न विज्जति ॥"
धम्मपद ९०, अरहन्तवग्गो
- "जिसकी यात्रा पूरी हो गयी है, जो शोकरहित है, सर्वथा विमुक्त है, जिसकी सभी ग्रंथियां कट गयी हैं, उसके लिए (कायिक और चैतसिक) संताप (नाम की कोई चीज़) नहीं है।"
पुस्तक: वैदेहीपुत्र आजातशत्रु
विपश्यना विशोधन विन्यास